Sunday, July 3, 2016

कहानी-" अजगर" +रमेशराज





[कहानी]
अजगर

+रमेशराज
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आप जि़द कर रहे हैं तो सुना ही देता हूं कि मुझे इन दिनों एक रोग हो गया है, सिर्फ अपनी बेरोज़गारी पर ही सोचते रहने का रोग। बड़ा भयंकर है ये रोग, जिसको भी लग जाये, उसे न तो सैर-सपाटा भाता है, न मित्रों  या हसीन लड़कियों से गप्पें ठोंकना | दिमाग़ फिरकनी की तरह चक्कर काटने लगता है। आदमी सिर्फ़ भविष्य की चिंता में गलता है।
इस यातनामय त्रासद स्थिति से बचने के लिये मैं लिब्रियमका सहारा लेता हूं। फिर भी दिमाग़ मुझे इस बेरोज़गारी की कारा में झोंकता ही रहता है। सोचता हूं, अपने इस दिमाग को सांप की केंचुल की तरह उतार कर कहीं फेंक आऊं। तब शायद महकते फूलों, एक्शन फिल्मों, रंगीन वादियों, नदियों, झरनों, आवारा बादलों के बारे में सोच पाऊं और पूरी तरह इस बेरोज़गारी के सोच से कन्नी काट जाऊं। लेकिन मैं जानता हूं कि मेरा यह सोचना बिलकुल हास्यास्पद या निरर्थक है।
मेरी ही तरह सोच में डूबे हुए मेरे पिताजी, जिन्होंने रात-दिन एककर मुझे पोस्टग्रेजुएट कराया, सिर्फ इस आस के साथ कि मैं पढ़-लिखकर किसी सरकारी सर्विस में पहुंच जाऊँगा तो ढेर सारे रुपये घर में लाऊंगा। तब दुर्दिन, जंगल कटने के बाद जंगली जानवरों की तरह गायब हो जायेंगे। मगर...।
दरअसल पिताजी के अंदर एक बहुत बड़ा जंगल उग आया है। मेरी बहन सुधा की शादी का जंगल... लाला सुखीराम से लिये कर्जे का जंगल, जिसे मेरी नौकरी रूपी कुल्हाड़ी ही काट सकती है। इस कुल्हाड़ी को मैं किसी भी कीमत पर पाना चाहता हूं। तभी तो देखते नहीं आप मै। कम्पटीशन की इन सारी किताबों को दिन-रात चाटता रहता हूं। जहां भी इस नौकरी रूपी कुल्हाड़ी का पता लगता है, फौरन आवेदन-पत्र भेज देता हूं। किंतु क्या करूं...? आपने एक कहावत तो सुनी होगी-एक अनार, सौ बीमार... वही हालत है आजकल नौकरी पाने वालों की। दिन-रात की माथापच्ची से आंखें भी तो कमजोर हो गयी हैं, तभी तो चश्मा बनवाना पड़ा है।
चश्मा जो आदमी को जवानी में ही बूढ़ा बना देता है। आदमी, आदमी नहीं चश्मुद्दीन हो जाता है। मैं चश्मुद्दीन हो गया हूं। बुढ़ापे ने जैसे मुझे अमरबेल की तरह घेरना शुरू कर दिया है। आप मेरे शरीर की एक-एक पसली गिन सकते हैं। दिखाऊं आपको अपनी कमीज उतार कर? खैर आप क्या करेंगे देखकर। आप दस जनों से और कहेंगे कि रमेश कितना बूढ़ा गया है। इसीलिये तो किसी के सामने मैं अपनी कमीज़ नहीं उतारता। सब हंसते हैं मुझ पर, एक सहानुभूति की हंसी, सिवाय मेरी बीवी के।
मेरी बीबी जो कई तरह के इन्द्रधनुषी सपने संजोकर आयी थी इस घर में। सारे सपनों पर कालिख पोत दी है मैंने। एक कालिख मैंने अपनी आंखें के नीचे भी पोत ली है, जिसे चश्मे से छुपाये रहता हूं। रात को सोते वक़्त जब मैं चश्मा उतारकर खटिया पर पसर जाता हूं तो मेरी बीबी लगातार गहराती हुई कालिख की भाषा को पढ़ने लगती है। पता नहीं क्या-क्या पढ़ती रहती है मुझे में? उसे मेरी विवशता समझ आती है भी कि नहीं? हाँ मैं बीबी के चेहरे की भाषा साफ़-साफ़ पढ़ सकता हूं हर रात-‘‘ आज नींद की गोली मत लेना... सेहत काफी बिगड़ चुकी है... और बिगड़ जायेगी... देखा ज़्यादा तनाव में मत रहा करो... ईश्वर सब ठीक कर देगा... आज बुरे दिन हैं तो कल अच्छे भी दिन आयेंगे...।’’
मैंने आपसे पहले ही कहा था कि मुझे एक रोग हो गया है, सिर्फ बेरोज़गारी पर सोचते रहने का रोग। जानते हैं अब यह रोग कितना बढ़ गया है? कुछ लोग कहते हैं कि यह लड़का पागल हो गया है। कुछ कहते हैं कि अगर अभी पागल नहीं हुआ है तो आगे हो जाएगा।
पिताजी जब भी मेरे विषय को लेकर गहरा चिंतन करते हैं तो बीड़ी-दर-बीड़ी फूंकते हैं। खांसी ऐसे उठती है कि रुकने का नाम नहीं लेती। तब मुझे लगता है कि उनके अंदर तपैदिक के कीटाणु रेंगने लगे हैं। वे खांसी के साथ लगातार खून के क़तरे उगल रहे हैं।
मेरी एक बहिन भी है, सुधा। तितली की तरह चंचल। फूलों की तरह शादाब। जब हंसती है तो सारे घर में खुशियां बिखेर देती है। बड़ी चुलबली और नटखट है। माना हंसना या ठहाके लगाना सेहत के लिये लाभकारी होता है, किंतु मैं अपनी बहिन की बातों पर हंस नहीं पाता हूं। कारण मैं आपको पहले ही बता चुका हूं कि मुझे एक रोग हो गया है, सिर्फ बेरोज़गारी पर सोचने का रोग। अब जब कभी मेरे अधरों पर हंसी के इंद्रधनुष तैरते हैं तो यह बेरोज़गारी का अजगर उन्हें तुरंत निगल जाता है। इन त्रासद हालात से निज़ात पाने के लिये मुझे चाहिए एक ठीक-सी नौकरी। क्या आप मेरी कोई सहायता कर सकते हैं? आप तो मेरी बात सुनते ही खिसकने लगे। थोड़ी देर और बैठिये न? अरे सुनो तो... मुझे एक...।’’
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रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630   

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